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शहर कोई सा भी हो, एक प्रॉब्लम कॉमन सी है. पार्किंग की. शायद ही कोई होगा जो हर रोज अपने शहर में इस समस्या से दो चार न होता हो. यह दिक्कत उन लोगों के साथ ज्यादा है जो फील्ड वर्क करते हैं. मसलन मार्केट से जुड़े लोग. दिन भर गाड़ी लेकर एक जगह से दूसरे जगह जाना और वहां अपने कामकाज के सिलसिले में लोगों से मिलना उनका रूटीन होता है. जाहिर है ऐसे में उन्हें कहीं न कहीं तो अपनी गाड़ी पार्क करनी ही होती है. अब आपने जगह देख कर कहीं गाड़ी लगायी नहीं की पर्ची लिये एक शख्स नमूदार होता है और आप से गाड़ी के हिसाब से दस, बीस या पच्चीस रुपए ले लेता है. गाड़ी की सिक्योरिटी के लिहाज से आपको यह रकम देना ही पड़ता है. क्योंकि अगर आप इन्हें पैसे नहीं देंगे तो गाड़ी लगाएंगे कहां? हो सकता है आप इसे छोटी सी प्रॉब्लम कहें पर ये कॉमन मैन से कनेक्ट करती हुई एक बड़ी समस्या है. अगर कोई व्यक्ति दिन में दो जगह भी अपनी गाड़ी पार्क करता है तो उसकी जेब से तो गये न चालीस पचास रुपए. दरअसल इस समस्या की जड़ में है हमारा लोकल एडमिनिस्ट्रेशन सिस्टम. उसने पूरे शहर में फ्री पार्किंग के लिए कहीं जगह छोड़ी ही नहीं. फिर रोड साइड पर भी पार्किंग्स का ठेका देकर वह खुद एनक्रोचमेंट करा रहा है. रेवेन्यू कमाना अच्छी बात है लेकिन पब्लिक की सुविधाओं का ख्याल रखना भी सिस्टम का फर्ज बनता है. यह सब कह कर हम उन लोगों की कतई वकालत नहीं कर रहे हैं जो राह चलते कहीं भी गाड़ी लगा कर चल देते हैं. यह सब वो अनसिविलाइज्ड लोग करते हैं जिन्हें दूसरे की फिक्र नहीं होती. लेकिन फ्री पार्किंग का इंतजाम न होना इस तरह की आदत को हवा देता है. इससे हो यह रहा है कि सड़कों पर जाम लगना हर शहर की रोज की समस्या बन गयी है. लोकल बॉडीज में बैठे प्रतिनिधि हैं कि सब जान कर भी चुप बैठे हुए हैं. शायद समय आ गया है जब हम उन्हीं यह पूछें कि, सर, हम अपनी गाड़ी कहां लगाएं?
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